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घुग्घुस नगर परिषद चुनाव — दिखावे की राजनीति और जनसेवा का मरता अर्थ

चांदा ब्लास्ट

घुग्घुस (चंद्रपुर) — नगर परिषद चुनाव का बिगुल बजते ही शहर की गलियों में जो दृश्य उभर कर सामने आ रहा है, वह भारतीय स्थानीय राजनीति की खोखली होती आत्मा का सजीव चित्र है। यह केवल एक शहर की कहानी नहीं, बल्कि उस व्यवस्था का दर्पण है जहाँ जनसेवा का अर्थ चुनावी पोस्टर, झूठी लोकप्रियता और स्वार्थी पदलोलुपता तक सीमित होकर रह गया है।

राजनीति का ज्ञान नहीं, पर सत्ता का लोभ अपार

राजनीति का न कोई बोध, न कोई दृष्टि — पर बाप-दादाओं का धन अथवा राजनीतिक वंश का ठप्पा लेकर कई लोग अचानक “भावी नगरसेवक” के रूप में प्रकट हो रहे हैं। यह प्रवृत्ति लोकतंत्र की सबसे खतरनाक बीमारी है। नेतृत्व का मापदंड अब जनसेवा नहीं, बल्कि आर्थिक ताक़त, जातीय समीकरण और चापलूसी बन चुका है। ऐसे लोगों को सत्ता सेवा नहीं, शौक और प्रतिष्ठा का मंच लगती है।

फोटोपॉलिटिक्स — “मैंने किया” का झूठा प्रदर्शन

शहर में कहीं कोई विकास कार्य शुरू होता है तो अचानक कई “भावी नगरसेवक” वहाँ पहुँचते हैं, फोटो खिंचवाते हैं और सोशल मीडिया पर प्रचार कर देते हैं — “मैंने करवाया”। सच्चाई यह है कि इन कामों से उनका दूर-दूर तक संबंध नहीं होता। असली कार्य करने वाले अधिकारी या पूर्व सदस्य का नाम कहीं खो जाता है और श्रेय की यह चोरी लोकतंत्र का नैतिक पतन दर्शाती है.

फ्लेक्स-पोस्टर का आतंक — हर गली में “भावी नगरसेवक

चुनावी माहौल में घुग्घुस की गलियाँ मानो एक “फ्लेक्स प्रदर्शनी” बन चुकी हैं। हर चौक पर एक नया चेहरा, एक नया दावा — “मुझे नगरसेवक बनाइए।” यह दिखावा जनता के मन में ऊब पैदा करता है, पर नेताओं को लगता है कि बड़े बैनर और महंगे इवेंट से लोकप्रियता खरीदी जा सकती है। विडंबना यह है कि चुनाव के बाद यही चेहरे पाँच साल तक फिर कभी दिखाई नहीं देते।

चाय-मिसळ और दारू में पाला गया “कट्टर समर्थक वर्ग”

कुछ तथाकथित भावी नेता बेरोजगार युवकों को फुसलाकर, उन्हें चाय, नाश्ता और शराब पिलाकर “समर्थक” बनाते हैं। यह राजनीति नहीं, सौदेबाज़ी है — और ऐसी मानसिकता में समाज निर्माण नहीं, केवल गुटबाज़ी और विभाजन पनपता है। सवाल यह है कि जो अपने लाभ के लिए लोगों को खरीदता है, वह जनता के हित में क्या देगा?

माजी बनाम भावी — दोनों का एजेंडा ‘स्वार्थ’

पूर्व सदस्य हों या नए दावेदार — दोनों का लक्ष्य एक ही दिखता है: “किसी तरह कुर्सी मिल जाए।” पद का उपयोग समाजसेवा के बजाय व्यक्तिगत खजाना भरने के लिए किया जा रहा है। नई-नई पदवियाँ — शहराध्यक्ष, महामंत्री, महिला प्रमुख — जनता के मुद्दों से नहीं, स्वार्थ की गणित से उपजी हैं। जनता की समस्याएँ, जल-निकासी, स्वच्छता, बेरोज़गारी, इन सब पर कोई चर्चा नहीं — केवल उद्घाटन, सम्मान, और फ़ोटो।

“निधि कहाँ से आती है?” — जनता के सवाल अनुत्तरित

चुनाव नज़दीक आते ही अचानक शहर में विकास कार्यों की बाढ़ आ जाती है। सवाल यह उठता है — इतने साल निधियाँ कहाँ थीं? यह धन अचानक चुनावी मौसम में ही क्यों बरसता है? सुजाण नागरिकों में इस पर चर्चा शुरू है, और यही चर्चा लोकतंत्र का सच्चा संकेत है — जनता अब केवल तमाशबीन नहीं, सवाल पूछने लगी है।

जनता का अंतिम फैसला — दिखावे से नहीं, विवेक से

चुनावी बेडक़ें (जैसे बारिश में अचानक निकलने वाले मेंढक) जब-जब मौसम आता है, तभी दिखाई देती हैं। साढ़े चार सालों तक जनता की गली तक नहीं आतीं। पर इस बार जनता जाग चुकी है। मतदाता अब सोशल मीडिया के चमक-धमक और झूठी प्रचार रैलियों से प्रभावित नहीं होगा। वह उन चेहरों को याद रखेगा जो बिना कैमरे के भी काम करते हैं।

— लोकशाही को दिखावे से मुक्त करने की ज़रूरत

घुग्घुस की नगर परिषद चुनावी हलचल हमें चेतावनी देती है कि अगर जनता ने केवल प्रचार और दिखावे पर वोट देना जारी रखा, तो आने वाले वर्षों में जनप्रतिनिधित्व पूरी तरह व्यवसाय बन जाएगा। लोकतंत्र को बचाने के लिए जरूरी है कि मतदाता व्यक्ति नहीं, विचार चुने; चेहरा नहीं, चरित्र देखे; और हर उम्मीदवार से यह पूछे — “आपने पिछले पाँच साल जनता के लिए क्या किया?”

जनता का जागरूक होना ही इन “भावी नगरसेवकों” के लिए सबसे बड़ी चुनौती है — और यही सच्चे लोकतंत्र की पहली जीत होगी। AI वर्णित 16:9 का बिना शब्दों वाला कार्टून चित्र बनाएं.

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